‘हिंदी बेल्ट’ की मातृभाषा?? प्रोफेसर कृष्ण कुमार का व्याख्यान

“हिंदी का मिजाज कुछ इस तरह बना कि उसने अपनी ही बोलियों को गवारुपन का, पिछड़ेपन का, प्रतीक मान लिया. आज भी आप आस-पास निकल जाएं- उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान के स्कूलों में, किसी बच्चे से पूछें और अगर वो ब्रज में भी उत्तर देता है तो शिक्षक के चेहरे पर एक शिकन आ जाती है कि ये बच्चा अपने गवारुपन का प्रदर्शन कर रहा है…जो बच्चा इन बोलियों का इस्तेमाल कक्षा में करता है उससे उम्मीद की जाती है कि वह जल्दी से जल्दी इस्तेमाल को छोड़ दे. और शिक्षक तो अपना यह धर्म ही समझता है कि जिस मातृभाषा की पृष्ठभूमि से वह बच्चा आया है, उसका संकेत भी इस कक्षा में न मिलने दे…मातृभाषा शब्द का अर्थ ही बदल गया है- मातृभाषा का मतलब हो गया है ‘मानक हिंदी’ जिसमें शिक्षा ही हमें आगे बढ़ाती है…मसला सिर्फ यही नहीं है कि अंग्रेजी माध्यम स्कूल में हिंदी न सुनाई दे, बल्कि मसला यह भी है कि किसी स्कूल में ब्रज, अवधी, भोजपुरी, मगही, मैथिली, राजस्थानी, बुन्देली, बघेली, हरयाणवी, इनकी ध्वनियाँ ना सुनाई दें, क्योंकि ये ध्वनियाँ हमें याद दिलाती हैं कि हम अभी पूरी तरह आधुनिक या सभ्य नहीं बने.”

भाग 1 (9:36 से देखें):

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